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चलते चलते मुझसे पूछा मेरे पाँव के छालों ने , बस्ती कितनी दूर बसा ली दिल में बसने वालों ने..!

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मेरा गांव मुझे बुलाता है और मेरी मां रोती है..!!

लियाकत शाह

आज यही स्थिति है इस देश की। कोरोना वायरस महामारी के वजह से लॉकडाउन के चलते भारत देश में जो स्थितियां बनी हैं, वह तो यही दर्शाती हैं। इस लॉकडाउन से सबसे अधिक जो वर्ग प्रभावित हुआ है वह है मजदूर वर्ग। देश के विभिन्न राज्यों के गांवों और कस्बों से अपनी रोजी रोटी के लिए बड़ी संख्या में बड़े शहरों और महानगरों में आए मजदूरों ने जिस शहर और महानगर की किस्मत को अपना खून पसीना देकर ज़िन्दगी संवारा, वही शहर और महानगर इन मजदूरों को दो महीने भी घर बैठे खिला न सका। क्या इतनी भी लायिकियत नहीं है इन शहरों और महानगरों की। अपना घर द्वार, परिवार छोड़कर आए ये मजदूर अपने परिवार और बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए शहरों और महानगरों में गए। मगर कोरोना वायरस ने पिछले दो महीने में ही इन मजदूरों की कमर तोड़ दी। काम न मिलने और जमा पूंजी खत्म होने की स्थिति में मजदूरों को अपना गांव और अपना घर याद आया। वे मजबूर होकर अपनी रोजी रोटी की जगहों को छोड़कर वापस अपने गांव को चल दिए। मजदूर पैदल चल रहे हैं, ट्रकों पर जा रहे हैं, साइकिल और ऑटोरिक्शा में जा रहे हैं। मगर उनका जाना रुक नहीं रहा है। कैसी विडंबना है कि जिन रास्तों को इन मजदूरों ने ही अपनी मेहनत और खून पसीना बहाकर बनाया, वही रास्ते अब उन्हें कितने लंबे लग रहे हैं कि खत्म ही नहीं होते। दिल्ली, नोएडा, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल आदि राज्यों से करोड़ों मजदूर पलायन को मजबूर आखिर क्यों हुए। देश के विभिन्न महामार्गों पर इस चिलचिलाती धूप और गर्मी में भी हजारों की संख्या में पैदल चल रहे मजदूरों को कभी सीमा पर बैरिकेड की, तो कभी पुलिस की सख्ती की, तो कभी खाने पीने की दिक्कतों से गुजरना पड़ रहा है। मगर मजदूर हैं कि इन सभी परेशानियों को दरकिनार करते हुए बस चले जा रहे हैं। कहीं हंगामा, कहीं तोड़फोड़, कहीं पुलिस के साथ जोर जबर्दस्ती करते हुए भी इनके पैर पीछे मुड़ने को राजी नहीं। अपने वतन, अपने गांव जाने की इसी जद्दोजहद में कितने ही मजदूर कभी रेल से कटकर तो कभी ट्रक के पलटने से तो कभी राष्ट्रीय महामार्ग पर पैदल चलते हुए किसी वाहन की चपेट में आ जाने से अपनी जान गवां चुके हैं। फिर भी इन सब से बेपरवाह मजदूर बस चले जा रहे हैं अपने गांवों की ओर। उन्हें अपने गांव और घर के सिवा कुछ न दिख रहा है और न ही कुछ सूझ रहा है। राज्य सरकारें ऐसे मजदूरों को अपने अपने राज्यों में रोक पाने में अब तक असमर्थ रही हैं। यह मजबूरी है उन मजदूरों की, उनके रहने की, खाने पीने की और परिवार को पालने की। गांव में भी जाकर उनकी स्थिति सुधरने वाली नहीं है, मगर उन्हें इतना तो सुकून जरूर मिलेगा कि वे खुली हवा में सांस ले सकेंगे, वहां कोई किराया मांगने वाला उन्हें परेशान तो नहीं करेगा, कोई राशन वाला अपनी उधारी के लिए तकादा करने तो नहीं पहुंच जाएगा या बिना पैसे के राशन देने से कोई दुकानदार मना तो नहीं करेगा। खैर जो भी हो, मगर यह जरूर कहा जा सकता है कि यदि मजबूरी न रही होती तो ये मजदूर अपने कार्यस्थल से पलायन कभी न करते।

चलते चलते मुझसे पूछा मेरे पाँव के छालों ने ,
बस्ती कितनी दूर बसा ली दिल में बसने वालों ने..!